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मंगलवार, 4 अप्रैल 2023

संक्षिप्त महाभारत

॥ श्रीहरिः ॥ संक्षिप्त महाभारत महाभारतका सरल, सचित्र हिंदी - अनुवाद त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव । त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देवदेव ॥ ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ आदिपर्व ग्रन्थका उपक्रम नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् । देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥ अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण, उनके सखा नर-रत्न अर्जुन, उनकी लीला प्रकट करनेवाली भगवती सरस्वती और उसके वक्ता भगवान् व्यासको नमस्कार करके आसुरी सम्पत्तियोंका नाश करके अन्तःकरणपर विजय प्राप्त करानेवाले महाभारत ग्रन्थका पाठ करना चाहिये । ॐ नमो भगवते वासुदेवाय । ॐ नमः पितामहाय । ॐ नमः प्रजापतिभ्यः । ॐ नमः श्रीकृष्णद्वैपायनाय । ॐ नमः सर्वविघ्नविनायकेभ्यः । लोमहर्षणके पुत्र उग्रश्रवा सूतवंशके श्रेष्ठ पौराणिक थे। एक बार जब नैमिषारण्य क्षेत्रमें कुलपति शौनक बारह वर्षका सत्संग-सत्र कर रहे थे, तब उग्रश्रवा बड़ी विनयके साथ सुखसे बैठे हुए व्रतनिष्ठ ब्रह्मर्षियोंके पास आये। जब नैमिषारण्यवासी तपस्वी ऋषियोंने देखा कि उग्रश्रवा हमारे आश्रममें आ गये हैं, तब उनसे चित्र-विचित्र कथा सुननेके लिये उन लोगोंने उन्हें घेर लिया। उग्रश्रवाने हाथ जोड़कर सबको प्रणाम किया और सत्कार पाकर उनकी तपस्याके सम्बन्धमें कुशल- प्रश्न किये। सब ऋषि-मुनि अपने-अपने आसनपर विराजमान हो गये और उनके आज्ञानुसार वे भी अपने आसनपर बैठ गये। जब वे सुखपूर्वक बैठकर विश्राम कर चुके, तब किसी ऋषिने कथाका प्रसंग प्रस्तुत करनेके लिये उनसे यह प्रश्न किया- ' सूतनन्दन! आप कहाँसे आ रहे हैं? आपने अबतकका समय कहाँ व्यतीत किया है ?" उग्रश्रवाने कहा, ‘मैं परीक्षित्-नन्दन राजर्षि जनमेजयके सर्प-सत्रमें गया हुआ था। वहाँ श्रीवैशम्पायनजीके मुखसे मैंने भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायनके द्वारा निर्मित महाभारत ग्रन्थकी अनेकों पवित्र और विचित्र कथाएँ सुनीं। इसके बाद बहुत-से तीर्थों और आश्रमोंमें घूमकर समन्तपंचक क्षेत्रमें आया, जहाँ पहले कौरव और पाण्डवोंका महान् युद्ध हो चुका है। वहाँसे मैं आपलोगोंका दर्शन करनेके लिये यहाँ आया हूँ । आप सभी चिरायु और ब्रह्मनिष्ठ हैं। आपका ब्रह्मतेज सूर्य और अग्निके समान है। आपलोग स्नान, जप, हवन आदिसे निवृत्त होकर पवित्रता और एकाग्रताके साथ अपने-अपने आसनपर बैठे हुए हैं। अब कृपा करके बतलाइये कि मैं आपलोगोंको कौन-सी कथा सुनाऊँ ।' ऋषियोंने कहा— सूतनन्दन ! परमर्षि श्रीकृष्ण द्वैपायनने जिस ग्रन्थका निर्माण किया है और ब्रह्मर्षियों तथा देवताओंने जिसका सत्कार किया है, जिसमें विचित्र पदोंसे परिपूर्ण पर्व हैं, जो सूक्ष्म अर्थ और न्यायसे भरा हुआ है, जो पद-पदपर वेदार्थसे विभूषित और आख्यानोंमें श्रेष्ठ है, जिसमें भरतवंशका सम्पूर्ण इतिहास है, जो सर्वथा शास्त्रसम्मत है और जिसे श्रीकृष्णद्वैपायनकी आज्ञासे वैशम्पायनजीने राजा जनमेजयको सुनाया है, भगवान् व्यासकी वही पुण्यमयी पापनाशिनी और वेदमयी संहिता हमलोग सुनना चाहते हैं । उग्रश्रवाजीने कहा – भगवान् श्रीकृष्ण ही सबके आदि हैं। वे अन्तर्यामी, सर्वेश्वर, समस्त यज्ञोंके भोक्ता, सबके द्वारा प्रशंसित, परम सत्य ॐकारस्वरूप ब्रह्म हैं। वे ही सनातन व्यक्त एवं अव्यक्तस्वरूप हैं। वे असत् भी हैं और सत् भी हैं, वे सत्-असत् दोनों हैं और दोनोंसे परे हैं। वे ही विराट् विश्व भी हैं। उन्होंने ही स्थूल और सूक्ष्म दोनोंकी सृष्टि की है। वे ही सबके जीवनदाता, सर्वश्रेष्ठ और अविनाशी हैं। वे ही मंगलकारी, मंगलस्वरूप, सर्वव्यापक, सबके वांछनीय, निष्पाप और परम पवित्र हैं। उन्हीं चराचरगुरु नयनमनोहारी हृषीकेशको नमस्कार करके सर्वलोकपूजित अद्भुतकर्मा भगवान् व्यासकी पवित्र रचना महाभारतका वर्णन करता हूँ । पृथ्वीमें अनेकों प्रतिभाशाली विद्वानोंने इस इतिहासका पहले वर्णन किया है, अब करते हैं और आगे भी करेंगे। यह परमज्ञानस्वरूप ग्रन्थ तीनों लोकोंमें प्रतिष्ठित है। कोई संक्षेपसे, तो कोई विस्तारसे इसे धारण करते हैं । इसकी शब्दावली शुभ है। इसमें अनेकों छन्द हैं और देवता तथा मनुष्योंकी मर्यादाका इसमें स्पष्ट वर्णन है। जिस समय यह जगत् ज्ञान और प्रकाशसे शून्य तथा अन्धकारसे परिपूर्ण था, उस समय एक बहुत बड़ा अण्डा उत्पन्न हुआ और वही समस्त प्रजाकी उत्पत्तिका कारण बना। वह बड़ा ही दिव्य और ज्योतिर्मय था। श्रुति उसमें सत्य, सनातन, ज्योतिर्मय ब्रह्मका वर्णन करती है। वह ब्रह्म अलौकिक, अचिन्त्य, सर्वत्र सम, अव्यक्त, कारणस्वरूप तथा सत् और असत् दोनों हैं। उसी अण्डे से लोकपितामह प्रजापति ब्रह्माजी प्रकट हुए । तदनन्तर दस प्रचेता, दक्ष, उनके सात पुत्र, सात ऋषि और चौदह मनु उत्पन्न हुए। विश्वेदेवा, आदित्य, वसु, अश्विनीकुमार, यक्ष, साध्य, पिशाच, गुह्यक, पितर, ब्रह्मर्षि, राजर्षि, जल, द्युलोक, पृथ्वी, वायु, आकाश, दिशाएँ, संवत्सर, ऋतु, मास, पक्ष, दिन, रात तथा जगत्में और जितनी भी वस्तुएँ हैं, सब उसी अण्डेसे उत्पन्न हुईं। यह सम्पूर्ण चराचर जगत् प्रलयके समय जिससे उत्पन्न होता है, उसी परमात्मामें लीन हो जाता है। ठीक वैसे ही, जैसे ऋतु आनेपर उसके अनेकों लक्षण प्रकट हो जाते और बदलनेपर लुप्त हो जाते हैं। इस प्रकार यह कालचक्र, जिससे सभी पदार्थोंकी सृष्टि और संहार होता है, अनादि और अनन्त रूपसे सर्वदा चलता रहता है। संक्षेपमें देवताओंकी संख्या तैंतीस हजार तैंतीस सौ तैंतीस (छत्तीस हजार तीन सौ तैंतीस ) है । विवस्वान्के बारह पुत्र हैं - दिवः पुत्र, बृहद्भानु, चक्षु, आत्मा, विभावसु, सविता, ऋचीक, अर्क, भानु, आशावह, रवि और मनु । मनुके दो पुत्र हुए- देवभ्राट् और सुभ्राट् । सुभ्राट्के तीन पुत्र हुए - दशज्योति, शतज्योति और सहस्रज्योति। ये तीनों ही प्रजावान् और विद्वान् थे। दशज्योतिके सारे भगवान् व्यास समस्त लोक, भूत-भविष्यत् - वर्तमानके रहस्य, कर्म- उपासना-ज्ञानरूप वेद, अभ्यासयुक्त योग, धर्म, अर्थ और काम, शास्त्र तथा लोक-व्यवहारको पूर्णरूपसे जानते हैं। उन्होंने इस ग्रन्थमें व्याख्याके साथ सम्पूर्ण इतिहास और सारी श्रुतियोंका तात्पर्य कह दिया है। भगवान् व्यासने इस महान् ज्ञानका कहीं विस्तारसे और कहीं संक्षेपसे वर्णन किया है, क्योंकि विद्वान् लोग ज्ञानको भिन्न-भिन्न प्रकारसे प्रकाशित करते हैं। उन्होंने तपस्या और ब्रह्मचर्यकी शक्तिसे वेदोंका विभाजन करके इस ग्रन्थका निर्माण किया और सोचा कि इसे शिष्योंको किस प्रकार पढ़ाऊँ ? भगवान् व्यासका यह विचार जानकर स्वयं ब्रह्माजी उनकी प्रसन्नता और लोकहितके लिये उनके पास आये। भगवान् वेदव्यास उन्हें देखकर बहुत ही विस्मित हुए और मुनियोंके साथ उठकर उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम किया तथा आसनपर बैठाया। स्वागत-सत्कारके बाद ब्रह्माजीकी आज्ञासे वे भी उनके पास ही बैठ गये। तब व्यासजीने बड़ी प्रसन्नतासे मुसकराते हुए कहा, 'भगवन्! मैंने एक श्रेष्ठ काव्यकी रचना की है। इसमें वैदिक और लौकिक सभी विषय हैं। इसमें वेदांगसहित उपनिषद्, वेदोंका क्रिया- विस्तार, इतिहास, पुराण, भूत, भविष्यत् और वर्तमानके वृत्तान्त, बुढ़ापा, मृत्यु, भय, व्याधि आदिके भाव - अभावका निर्णय, आश्रम और वर्णोंका धर्म, पुराणोंका सार, तपस्या, ब्रह्मचर्य, पृथ्वी, चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारा और युगोंका वर्णन, उनका परिमाण, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्वण, अध्यात्म, न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, दान, पाशुपतधर्म, देवता और मनुष्योंकी उत्पत्ति, पवित्र तीर्थ, पवित्र देश, नदी, पर्वत, वन, समुद्र, पूर्व कल्प, दिव्य नगर, युद्धकौशल, विविध दस हजार, शतज्योतिके एक लाख और सहस्रज्योतिके दस लाख पुत्र उत्पन्न हुए। इन्हींसे कुरु, यदु, भरत, ययाति और इक्ष्वाकु आदि राजर्षियोंके वंश चले। बहुत से वंशों और प्राणियोंकी सृष्टिकी यही परम्परा है। ...................शेष भाग कल । सम्पादक तथा संशोधक श्रद्धेय श्रीजयदयालजी गोयन्दका गीताप्रेष ,गोरखपुर

नाम जप किस प्रकार होना चाहिए ।

प्रश्न . नाम किस प्रकार जप होना चाहिए ? जिससे हमे लाभ हो ? उत्तर:– सबसे पहले नाम जप जैसे भी हो लाभ होता ही है ... फिर भी आप जानने के इक्ष...